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कुछ दर्द जगाए रखते हैं कुछ ख़्वाब सजाए रखते हैं - मुबीन मिर्ज़ा कविता - Darsaal

कुछ दर्द जगाए रखते हैं कुछ ख़्वाब सजाए रखते हैं

कुछ दर्द जगाए रखते हैं कुछ ख़्वाब सजाए रखते हैं

इस दिल के सहारे जीवन में हम बात बनाए रखते हैं

ऐसे भी मराहिल आते हैं इस मंज़िल-ए-इश्क़ की राहों में

जब अश्क बहाते हैं ख़ुद भी उस को भी रुलाये रखते हैं

क्या उस से कहें और कैसे कहें उन रंग बदलती आँखों से

क्या शौक़ उमडते हैं दिल में क्या वहम सताए रखते हैं

इक बात पे आ कर आज हमें इक़रार ये उस से करना पड़ा

कब याद नहीं करते उस को कब उस को भुलाए रखते हैं

सद-रंग नज़ारे थे जिस में वो दिल का चमन क्या तुम से कहें

क्यूँ उस को उजाड़ के बैठे हैं क्यूँ ख़ाक उड़ाए रखते हैं

मुहताज नहीं है किश्त-ए-जाँ मौसम के बदलते धारों की

कुछ दाग़ तो दिल में बे-मौसम सौ फूल खिलाए रखते हैं

आशिक़ भी नहीं साधू भी नहीं फिर राज़ है क्या ये 'मिर्ज़ा'-जी

किस आँच से दहका है सीना क्या आग जलाए रखते हैं

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