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बड़े तूफ़ाँ उठाने के लिए हैं - मुबीन मिर्ज़ा कविता - Darsaal

बड़े तूफ़ाँ उठाने के लिए हैं

बड़े तूफ़ाँ उठाने के लिए हैं

ये आँखें मुस्कुराने के लिए हैं

बिल-आख़िर कम पड़ेगा ये अंधेरा

चराग़ इतने जलाने के लिए हैं

ये ख़ुशबू लम्हे और ये ख़ुश-अदा लोग

बिछड़ कर याद आने के लिए हैं

ख़ुदा जाने ये दल के वसवसे अब

मुझे क्या दिन दिखाने के लिए हैं

हुआ करते थे हम अपने लिए भी

मगर अब तो ज़माने के लिए हैं

जो आँखें ख़्वाब बनने के लिए थीं

वो अब आँसू बहाने के लिए हैं

हम ऐसे लोग उस की अंजुमन में

चराग़-ए-दिल जलाने के लिए हैं

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