कब मिरी हल्क़ा-ए-वहशत से रिहाई हुई है
कब मिरी हल्क़ा-ए-वहशत से रिहाई हुई है
दिल ने इक और भी ज़ंजीर बनाई हुई है
और क्या है मिरे दामन में मोहब्बत के सिवा
यही दौलत मिरी मेहनत से कमाई हुई है
इश्क़ में जुरअत-ए-तफ़रीक़ नहीं क़ैस को भी
तू ने क्यूँ दश्त में दीवार उठाई हुई है
तेरी सूरत जो मैं देखूँ तो गुमाँ होता है
तो कोई नज़्म है जो वज्द में आई हुई है
इक परी-ज़ाद के यादों में उतर आने से
ज़िंदगी वस्ल की बारिश में नहाई हुई है
अपनी मिट्टी से मोहब्बत है मोहब्बत है मुझे
इसी मिट्टी ने मिरी शान बढ़ाई हुई है
सामने बैठ के देखा था उसे वस्ल की रात
और वो रात ही आसाब पे छाई हुई है
तुम गए हो ये वतन छोड़ के जिस दिन से 'सईद'
इक उदासी दर ओ दीवार पे छाई हुई है
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