नज़्म
रोज़ रात के पहले पहर
कोरे काग़ज़ पर तुम्हारा नाम लिखता हूँ
और मौसम-ए-बहार का आग़ाज़ हो जाता है
काग़ज़ पर तुम्हारे नाम से इक बेल फूटती है
उस की कोंपलें निकलती हैं
ख़ुश-रंग शगूफ़े खिलते हैं
बेल मोहब्बत की धुन पर नाचना शुरूअ' कर देती है
नाचते नाचते पूरे वरक़ को गुलिस्ताँ कर देती है
मैं थोड़ी सी ख़ुश-बू अपने हाथों पर मल लेता हूँ
कुछ रंग अपने चेहरे पर लगा लेता हूँ
मुस्कान होंटों पर सजा लेता हूँ
बाक़ी रात पूरे एक सौ फूलों का इत्र कशीद करता हूँ
इत्र अपनी बयाज़ पर उंडेल देता हूँ
नज़्म बन जाती है
(2848) Peoples Rate This