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अपने हाथों की लकीरें न मिटा रहने दे - मुबारक शमीम कविता - Darsaal

अपने हाथों की लकीरें न मिटा रहने दे

अपने हाथों की लकीरें न मिटा रहने दे

जो लिखा है वही क़िस्मत में लिखा रहने दे

सच अगर पूछ तो ज़िंदा हूँ उन्हीं की ख़ातिर

तिश्नगी मुझ को सराबों में घिरा रहने दे

आह ऐ इशरत-ए-रफ़्ता निकल आए आँसू

मैं न कहता था कि इतना न हँसा रहने दे

उस को धुँदला न सकेगा कभी लम्हों का ग़ुबार

मेरी हस्ती का वरक़ यूँही खुला रहने दे

शर्त ये है कि रहे साथ वो मंज़िल मंज़िल

वर्ना ज़हमत न करे बाद-ए-सबा रहने दे

यूँ भी एहसास-ए-अलम शब में सिवा होता है

ऐ शब-ए-माह मिरी हद में न आ रहने दे

ज़िंदगी मेरे लिए दर्द का सहरा है 'शमीम'

मेरे माज़ी मुझे अब याद न आ रहने दे

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