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नज़्म - मुबारक हैदर कविता - Darsaal

नज़्म

मैं कितने बरसों से रोज़ अपने अना की एक परत

छीलता हूँ

लहू लहू इन हज़ार परतों की तह में पत्थर हूँ

जानता हूँ

ये कहकशाएँ ये काएनातें ये रौशनी के सियाह रस्ते

गुज़र के तेरी तलाश में हैं

कि हो न हो तुम वहाँ कहीं मेरी मुंतज़िर हो

मुझे यक़ीं है कि तुम मेरी बात सुन रही हो

मगर नहीं हो, कि ये जो तुम हो, ये तुम नहीं हो

मिरी अना का कोई नगर हो

कि जिस के रौशन सियाह कूचों में

सर-कटे अजनबी भरे हैं

मैं रूह के रेशमी लिबादे हटा के ख़ुद से मिलूँगा लेकिन

मुझे ख़बर है कि तुम वहाँ भी नहीं मिलोगी

कि तुम परस्तिश की आरज़ू का कोई भँवर हो

कोई ख़ुदावंद-ए-लब मिले तो

कि अपनी बंजर अदा के मंदिर में मूर्ती की तरह खड़ी हो

हज़ार सदियों से राह तक तक के जम गई हो

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