दिल लगाते ही तो कह देती हैं आँखें सब कुछ
ऐसे कामों के भी आग़ाज़ कहीं छुपते हैं
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उस गली में हज़ार ग़म टूटा
अब कौन बात रह गई ये बात भी गई
लगा दे सोज़-ए-मोहब्बत फिर आग सीने में
इक तिरी बात कि जिस बात की तरदीद मुहाल
इश्क़ की चौसर किस ने खेली ये तो खेल हमारे हैं
कुछ इस अंदाज़ से सय्याद ने आज़ाद किया
तुम्हारी शर्त-ए-मोहब्बत कभी वफ़ा न हुई
मैं तो हर हर ख़म-ए-गेसू की तलाशी लूँगा
क़यामत की हक़ीक़त जानता हूँ
बग़ल में हम ने रात इक ग़ैरत-ए-महताब देखा है
उधर चुटकी वो दिल में ले रहे हैं
आब-ओ-दाना तिरा ऐ बुलबुल-ए-ज़ार उठता है