बेश ओ कम का शिकवा साक़ी से 'मुबारक' कुफ़्र था
दौर में सब के ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ पैमाना रहा
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समझाएँ किस तरह दिल-ए-ना-कर्दा-कार को
तुम्हारी शर्त-ए-मोहब्बत कभी वफ़ा न हुई
यूँ ये बदली काली काली जाएगी
तिरी अदा की क़सम है तिरी अदा के सिवा
किस पे दिल आया कहाँ आया बता ऐ नासेह
जो लड़खड़ाए क़दम मय-कदे में मस्तों के
अब कौन बात रह गई ये बात भी गई
तेरी बख़्शिश के भरोसे पे ख़ताएँ की हैं
क़ुबूल हो कि न सज्दा ओ सलाम अपना
तुम भूल गए मुझ को यूँ याद दिलाता हूँ
जो उन को चाहिए वो किए जा रहे हैं वो