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मोहब्बत में ठनी अक्सर यहाँ तक - मुबारक अज़ीमाबादी कविता - Darsaal

मोहब्बत में ठनी अक्सर यहाँ तक

मोहब्बत में ठनी अक्सर यहाँ तक

कि पहुँचे मारके तीर ओ कमाँ तक

चले नावक खिंची ज़ालिम कमाँ तक

कहाँ तक इम्तिहाँ आख़िर कहाँ तक

चले जाते हैं आवाज़-ए-जरस पर

पहुँच जाएँगे बिछड़े कारवाँ तक

हवा-ए-शौक़ के झोंके सलामत

रहोगे तुम पस-ए-पर्दा कहाँ तक

न वो अय्यार मुझ से पूछता है

न दिल की बात आती है ज़बाँ तक

उसी सर को सर-ए-शोरीदा कहिए

जो पहुँचे उस के संग-ए-आस्ताँ तक

नियाज़ ओ नाज़ के चर्चे रहेंगे

हमारी और तुम्हारी दास्ताँ तक

'मुबारक' को कोई दिन और सुन लो

बयाँ का लुत्फ़ है उस ख़ुश-बयाँ तक

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