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इश्क़ की चौसर किस ने खेली ये तो खेल हमारे हैं - मुबारक अज़ीमाबादी कविता - Darsaal

इश्क़ की चौसर किस ने खेली ये तो खेल हमारे हैं

इश्क़ की चौसर किस ने खेली ये तो खेल हमारे हैं

दिल की बाज़ी मात हुई तो जान की बाज़ी हारे हैं

कैसे कैसे लख़्त-ए-जिगर हैं क्या क्या दिल के पारे हैं

ऐसे लाल कहाँ दुनिया में जैसे लाल हमारे हैं

इस को मारा उस को मारा ये बिस्मिल वो टूट गया

नोक पलक वालों से डरिए क़ातिल उन के इशारे हैं

छलनी छलनी दिल भी जिगर भी रौज़न रौज़न सीना भी

एक निगाह-ए-नाज़ ने तेरी तीर हज़ारों मारे हैं

फूँक रहा है सोज़-ए-निहानी कौन इस आग पे डाले पानी

दिल की लगी ने आग लगा दी दाग़ नहीं अँगारे हैं

लाला-रुख़ों में उम्र गुज़ारी देखी उन की फ़स्ल-ए-बहार

आज भी गुल से गालों वाले मुझ को 'मुबारक' प्यारे हैं

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