घटा उट्ठी है काली और काली होती जाती है
घटा उट्ठी है काली और काली होती जाती है
सुराही जो भरी जाती है ख़ाली होती जाती है
जफ़ा हर-चंद दुनिया से निराली होती जाती है
गिला किस मुँह से कीजे होने वाली होती जाती है
विदा-ए-जाँ है तन से दिल से अरमानों की रुख़्सत है
भरी महफ़िल हमारी आज ख़ाली होती जाती है
'मुबारक' मैं तसद्दुक़ अपने इस मश्क़-ए-तसव्वुर के
मुजस्सम अब वो तस्वीर-ए-ख़याली होती जाती है
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