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बेगाना-ए-वफ़ा तिरा शेवा ही और है - मुबारक अज़ीमाबादी कविता - Darsaal

बेगाना-ए-वफ़ा तिरा शेवा ही और है

बेगाना-ए-वफ़ा तिरा शेवा ही और है

अहल-ए-वफ़ा का तौर-तरीक़ा ही और है

दैर ओ हरम की राह में रखते नहीं क़दम

हम रह-रवान-ए-शौक़ का रस्ता ही और है

दिल बेवफ़ा के हाथ न बेचेगा बा-वफ़ा

तुम से नहीं बनेगा ये सौदा ही और है

अल्लाह दिल न तुम को तड़पता हुआ दिखाए

देखा न जाएगा ये तमाशा ही और है

जल्वा-फ़रोश आप हैं मैं दिल-फ़रोश हूँ

ऐसों से क्या बनेगा ये सौदा ही और है

टुकड़े हैं दिल जिगर के 'मुबारक' कि शेर हैं

ग़ज़लों का आप की तो सफ़ीना ही और है

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