फिसलने वाला था ख़ुद को मगर सँभाल गया
फिसलने वाला था ख़ुद को मगर सँभाल गया
अजीब शख़्स था वो बात हंस के टाल गया
बदलने वाली है रुत साएबान से निकलो
जो शो'ला-बार था वो अब्र बर्शगाल गया
तुम अपने आप को पहचान भी न पाओगे
वो रौशनी में अंधेरा अगर उछाल गया
नक़ाब अपनी बुराई पे डालनी थी उसे
वो ला के ख़ाक मिरी नेकियों पे डाल गया
क़ुसूर-वार मैं ठहराऊँ आईने को क्यूँ
जो बोलता था तिरा अब वो ख़द्द-ओ-ख़ाल गया
मिज़ाज अपना 'मुबारक' बदल दिया मैं ने
ख़याल उस का गए वक़्त की मिसाल गया
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