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गुमाँ की क़ैद-ए-हिसार-ए-क़यास से निकलो - मुबारक अंसारी कविता - Darsaal

गुमाँ की क़ैद-ए-हिसार-ए-क़यास से निकलो

गुमाँ की क़ैद-ए-हिसार-ए-क़यास से निकलो

किसी तरह से भी इस सब्ज़ घास से निकलो

ये शहर-ए-संग है शहर-ए-वफ़ा नहीं है ये

अगर निकलना है होश-ओ-हवास से निकलो

वगरना वक़्त तुम्हें हाशिए पे रख देगा

यक़ीं के सेहर से आशोब-ए-आस से निकलो

ये कैसा नश्शा है आख़िर जो टूटता ही नहीं

कोई पुकार रहा है गिलास से निकलो

कहाँ तलक मैं निगाहों को दूँ फ़रेब अपनी

कभी तो गर्द-ए-अदम के लिबास से निकलो

'मुबारक' आग के दरिया से भी गुज़रना है

दहकती धूप से सहरा की प्यास से निकलो

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