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कभी वो दोस्त कभी फ़ित्ना-साज़ लगता है - मूसा रज़ा कविता - Darsaal

कभी वो दोस्त कभी फ़ित्ना-साज़ लगता है

कभी वो दोस्त कभी फ़ित्ना-साज़ लगता है

वो देखने में बड़ा दिल-नवाज़ लगता है

ग़ज़ब में आए तो आतिश मिज़ाज बन जाए

वो मेहरबाँ हो तो महफ़िल-गुदाज़ लगता है

जहाँ का दर्द भरा है मिज़ाज में उस के

वो एक हम से फ़क़त बे-नियाज़ लगता है

वो तोड़ता भी है दिल इक अदा-ए-नाज़ के साथ

सितमगरी में भी वो चारासाज़ लगता है

जफ़ाएँ उस की वो मक़्बूल-ए-आम हैं इतनी

हमारा शिकवा बहुत बे-जवाज़ लगता है

मैं सर-ब-सज्दा हुआ उस के दर पे तो पूछा

ये कौन शख़्स है महव-ए-नमाज़ लगता है

मिरी फ़ुग़ाँ पे ब-अंदाज़-ए-दाद उस ने कहा

तुम्हारा शे'र बहुत दिल-गुदाज़ लगता है

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