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अपनी नज़र में आप को रुस्वा न कर सके - मूसा रज़ा कविता - Darsaal

अपनी नज़र में आप को रुस्वा न कर सके

अपनी नज़र में आप को रुस्वा न कर सके

हम दुश्मनों के साथ भी धोका न कर सके

सब रास्तों का इल्म था मंज़िल क़रीब थी

अफ़्सोस हम-सफ़र का इरादा न कर सके

आँखें असीर ज़ेहन गिरफ़्तार लब ब-क़ुफ़्ल

उन के हुज़ूर एक इशारा न कर सके

उन का सितम तो ख़ैर बहुत सह लिया मगर

उन के करम का बोझ गवारा न कर सके

यारान-ए-ग़म-गुसार दिलासे तसल्लियाँ

तिनके थे जिन पे कोई सहारा न कर सके

लिखते रहे जुनूँ की हिकायात ख़ूँ-चकाँ

लेकिन किसी पे राज़ ये इफ़्शा न कर सके

ज़ुल्मत-परस्त चराग़ थे ऐसे भी कुछ 'रज़ा'

जलते रहे मगर जो उजाला न कर सके

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