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सच को कहने का हौसला है मुझे - मोनी गोपाल तपिश कविता - Darsaal

सच को कहने का हौसला है मुझे

सच को कहने का हौसला है मुझे

अपने अंजाम का पता है मुझे

नींद से ख़्वाब हो गए रुख़्सत

ज़िंदगी जैसे इक सज़ा है मुझे

उस ने रग़बत से हाथ खींच लिया

अब कहाँ कोई सोचता है मुझे

दोस्ती का भरम ही तोड़ दिया

इन दिनों जाने क्या हुआ है मुझे

जिस की नींदों में ख़्वाब मेरे थे

जब से जागा है ढूँडता है मुझे

चंद जलते सवाल बुझता दिल

ज़िंदगी तू ने क्या दिया है मुझे

सारे रिश्ते जब उस ने तोड़ लिए

मुड़ के अब क्या पुकारता है मुझे

अब हूँ बुझते दिए सा सूरज था

इन हवालों को सोचना है मुझे

क्यूँ 'तपिश' उलझनों में उलझा है

इस के बारे में जानना है मुझे

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