गर्द-आलूदा फ़ज़ा बीनाई गर्द-आलूद थी
गर्द-आलूदा फ़ज़ा बीनाई गर्द-आलूद थी
पत्थरों के शहर में सुनवाई गर्द-आलूद थी
पत्तियों पर थी रक़म सारे चमन कि दास्ताँ
और चमन कि दास्ताँ-आराई गर्द-आलूद थी
ख़ून में डूबी हुई कुछ उँगलियाँ थीं सोच में
दूर वो था हाशिया-आराई गर्द-आलूद थी
वो उसे ओढ़े रहा चेहरे पे ख़ुशबू कि तरह
हाँ वही जिस शख़्स कि तंहाई गर्द-आलूद थी
अब कि रुत बदली तो फूलों को पसीना आ गया
अब कि ख़ुशबू कि करम-फ़रमाई गर्द-आलूद थी
मैं 'तपिश' जिन रग़बतों को ओढ़ कर फिरता रहा
वो दर-ओ-दीवार वो अँगनाई गर्द-आलूद थी
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