माशूक़ से भी हम ने निभाई बराबरी
वाँ लुत्फ़ कम हुआ तो यहाँ प्यार कम हुआ
Faiz Ahmad Faiz
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वो कहाँ साथ सुलाते हैं मुझे
तुम हमारे किसी तरह न हुए
आप की कौन सी बढ़ी इज़्ज़त
वो जो हम में तुम में क़रार था तुम्हें याद हो कि न याद हो
दीदा-ए-हैराँ ने तमाशा किया
है शर्म-ए-गुनह से जाँ कैसी बे-ताब
मेरे तग़ईर-ए-रंग को मत देख
पैहम सुजूद पा-ए-सनम पर दम-ए-विदा
क़हर है मौत है क़ज़ा है इश्क़
करता है क़त्ल-ए-आम वो अग़्यार के लिए
मोमिन मैं अपने नालों के सदक़े कि कहते हैं
थी वस्ल में भी फ़िक्र-ए-जुदाई तमाम शब