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वादे की जो साअत दम-ए-कुश्तन है हमारा - मोमिन ख़ाँ मोमिन कविता - Darsaal

वादे की जो साअत दम-ए-कुश्तन है हमारा

वादे की जो साअत दम-ए-कुश्तन है हमारा

जो दोस्त हमारा है सो दुश्मन है हमारा

ये काह-ए-रुबा से भी हैं कम ऐ कशिश-ए-दिल

मज़कूर कुछ ऐसा पस-ए-चिलमन है हमारा

अफ़्सोस मू-ए-शम-ए-शब-ए-वस्ल की मानिंद

जो क़हक़हा शादी है सो शेवन है हमारा

महताब का क्या रंग किया दूद-ए-फ़ुग़ाँ ने

अहवाल शब-ए-तार से रौशन है हमारा

देता नहीं उस ज़ोफ़ पे भी जोश-ए-जुनूँ चैन

हर रेग-ए-रवाँ दश्त में तौसन है हमारा

तफ़रीह न क्यूँकर हो हवा आ नहीं सकती

गोया दर ओ दीवार नशेमन है हमारा

गर पास है लोगों का तो आ जा कि क़लक़ से

है लाश कहीं और कहीं मदफ़न है हमारा

जज़्ब-ए-दिल उसे खींच के लाए तो कहाँ लाए

जो ग़ैर का घर है वही मस्कन है हमारा

बुत-ख़ाने से काबे को चले रश्क के मारे

'मोमिन' ख़िज़्र-ए-राह बरहमन है हमारा

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