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राज़-ए-निहाँ ज़बान-ए-अग़्यार तक न पहुँचा - मोमिन ख़ाँ मोमिन कविता - Darsaal

राज़-ए-निहाँ ज़बान-ए-अग़्यार तक न पहुँचा

राज़-ए-निहाँ ज़बान-ए-अग़्यार तक न पहुँचा

क्या एक भी हमारा ख़त यार तक न पहुँचा

अल्लाह रे ना-तवानी जब शिद्दत-ए-क़लक़ में

बालीं से सर उठाया दीवार तक न पहुँचा

रोते तो रहम आता सो उस के रू-ब-रू तो

इक क़तरा ख़ूँ भी चश्म-ए-ख़ूँ-बार तक न पहुँचा

आशिक़ से मत बयाँ कर क़त्ल-ए-अदू का मुज़्दा

पैग़ाम-ए-मर्ग है ये बीमार तक न पहुँचा

बे-बख़्त रंग-ए-ख़ूबी किस काम का कि मैं तो

था गुलवले किसी की दस्तार तक न पहुँचा

मुफ़्त अव्वल-ए-सुख़न में आशिक़ ने जान दे दी

क़ासिद बयान तेरा इक़रार तक न पहुँचा

थी ख़ार राह तेरी मिज़्गाँ की याद फिर शब

ता-सुब्ह ख़्वाब चश्म-ए-बेदार तक न पहुँचा

बख़्त-ए-रसा अदू के जो चाहे सो कहे अब

यक बार यार मुझ तक मैं यार तक न पहुँचा

ग़ैरों से उस ने हरगिज़ छोड़ी न हाथा-पाई

जब तक अजल का सदमा दो-चार तक न पहुँचा

'मोमिन' उसी ने मुझ से दी बरतरी किसी को

जो पस्त-फ़हम मेरे अशआर तक न पहुँचा

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