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न इंतिज़ार में याँ आँख एक आन लगी - मोमिन ख़ाँ मोमिन कविता - Darsaal

न इंतिज़ार में याँ आँख एक आन लगी

न इंतिज़ार में याँ आँख एक आन लगी

न हाए हाए में तालू से शब ज़बान लगी

जला जिगर तप-ए-ग़म से फड़कने जान लगी

इलाही ख़ैर कि अब आग पास आन लगी

गली में उस की न फिर आते हम तो क्या करते

तबीअत अपनी न जन्नत के दरमियान लगी

जफ़ा-ए-ग़ैर का शिकवा था तेरा था क्या ज़िक्र

अबस ये बात बुरी तुझ को बद-गुमान लगी

हँसो न तुम तो मिरे हाल पर मैं हूँ वो ज़लील

कि जिस की ज़िल्लत-ओ-ख़्वारी से तुम को शान लगी

कहाँ वो आह-ओ-फ़ुग़ाँ दम भी ले नहीं सकते

हमें ये तेरी दुआ-ए-बद आसमान लगी

मैं और उस को बुलाऊँगा रोज़-ए-वस्ल में लो

अजल भी करने मोहब्बत का इम्तिहान लगी

ब-रंग-ए-सूरत-ए-बुलबुल नहीं नवा-संजी

ये क्या हुआ कि चुप ऐ गुल्सिताँ बयान लगी

सदा तुम्हारी तरफ़ जी लगा ही रहता है

तुम्हारे वास्ते है दिल को मेहरबान लगी

वो कीना-तूज़ था 'मोमिन' तो दिल लगाया क्यूँ

कहो तो क्या तुम्हें ऐसी भली वो आन लगी

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