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इम्तिहाँ के लिए जफ़ा कब तक - मोमिन ख़ाँ मोमिन कविता - Darsaal

इम्तिहाँ के लिए जफ़ा कब तक

इम्तिहाँ के लिए जफ़ा कब तक

इल्तिफ़ात-ए-सितम-नुमा कब तक

ग़ैर है बेवफ़ा प तुम तो कहो

है इरादा निबाह का कब तक

जुर्म मालूम है ज़ुलेख़ा का

तान-ए-दस्त-ए-ना-रसा कब तक

मुझ पे आशिक़ नहीं है कुछ ज़ालिम

सब्र आख़िर करे वफ़ा कब तक

देखिए ख़ाक में मिलाती है

निगह-ए-चश्म-ए-सुरमा-सा कब तक

कहीं आँखें दिखा चुको मुझ को

जानिब-ए-ग़ैर देखना कब तक

न मिलाएँगे वो न आएँगे

जोश-ए-लब्बैक-ओ-मरहबा कब तक

होश में आ तू मुझ में जान नहीं

ग़फ़लत-ए-जुरअत-आज़मा कब तक

ले शब-ए-वस्ल-ए-ग़ैर भी काटी

तू मुझे आज़माएगा कब तक

तुम को ख़ू हो गई बुराई की

दरगुज़र कीजिए भला कब तक

मर चले अब तो उस सनम से मिलें

'मोमिन' अंदेशा-ए-ख़ुदा कब तक

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