मेरी अर्ज़-ए-शौक़ बे-मअ'नी है उन के वास्ते
उन की ख़ामोशी भी इक पैग़ाम है मेरे लिए
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यही ज़िंदगी मुसीबत यही ज़िंदगी मसर्रत
हमीं हैं सोज़ हमीं साज़ हैं हमीं नग़्मा
अभी सुमूम ने मानी कहाँ नसीम से हार
जब कभी किसी गुल पर इक ज़रा निखार आया
ग़म की तस्वीर बन गया हूँ मैं
रिसते हुए ज़ख़्मों का हो कुछ और मुदावा
मिले मुझ को ग़म से फ़ुर्सत तो सुनाऊँ वो फ़साना
गुल
ऐ ग़ैरत-ए-ग़म आँख मिरी नम तो नहीं है
मेरी शायरी और नक़्क़ाद
ऐश से क्यूँ ख़ुश हुए क्यूँ ग़म से घबराया किए
फ़ुज़ूल राज़ मोहब्बत का सब छुपाते हैं