जो आग लगाई थी तुम ने उस को तो बुझाया अश्कों ने
जो अश्कों ने भड़काई है उस आग को ठंडा कौन करे
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गुल
जब कभी किसी गुल पर इक ज़रा निखार आया
ग़म की तस्वीर बन गया हूँ मैं
सर्व-ओ-समन भी मौज-ए-नसीम-ए-सहर भी है
कितनी बुलंदियों पे सर-ए-दार आए हैं
शरीक-ए-महफ़िल-ए-दार-ओ-रसन कुछ और भी हैं
मेरी ही नज़र की मस्ती से सब शीशा-ओ-साग़र रक़्साँ थे
हम दहर के इस वीराने में जो कुछ भी नज़ारा करते हैं
यही ज़िंदगी मुसीबत यही ज़िंदगी मसर्रत
मुतरबा
जब कश्ती साबित-ओ-सालिम थी साहिल की तमन्ना किस को थी
अल्लाह-रे बे-ख़ुदी कि चला जा रहा हूँ मैं