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तवहहुम - मुईन अहसन जज़्बी कविता - Darsaal

तवहहुम

उन के लहजे में वो कुछ लोच वो झंकार वो रस

एक बे-क़स्द तरन्नुम के सिवा कुछ भी न था

काँपते होंटों में उलझे हुए मुबहम फ़िक़रे

वो भी अंदाज़-ए-तकल्लुम के सिवा कुछ भी न था

सैकड़ों टीसें नज़र आती थीं जिस में मुझ को

वो भी इक सादा तबस्सुम के सिवा कुछ भी न था

सर्द ओ ताबिंदा सी पेशानी वो मचले हुए अश्क

दिन में नूर-ए-माह-ओ-अंजुम के सिवा कुछ भी न था

तुंद आहों के दबाने में वो सीने का उभार

एक यूँही से तलातुम के सिवा कुछ भी न था

मैं ने जो देखा था, जो सोचा था, जो समझा था

हाए 'जज़्बी' वो तवहहुम के सिवा कुछ भी न था

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