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मेरी शायरी और नक़्क़ाद - मुईन अहसन जज़्बी कविता - Darsaal

मेरी शायरी और नक़्क़ाद

ऐ मिरे शेर के नक़्क़ाद तुझे है ये गिला

कि नहीं है मिरे एहसास में सरमस्ती ओ कैफ़

कि नहीं है मिरे अन्फ़ास में बू-ए-मय-ए-जाम

चमन-ए-दहर की तक़दीर कि मैं हूँ वो घटा

जिस ने सीखा ही नहीं अब्र-ए-बहारी का ख़िराम

रात तारीक है और मैं हूँ वो इक शमबू-ए-हज़ीं

जिस के शोले में नहीं सुब्ह-ए-दरख़्शाँ का पयाम

मेरे फूलों में सबाओं न बहारों का गुज़र

मेरी रातों में सितारों न शरारों का गुज़र

मेरी महफ़िल में न मुतरिब न मुग़न्नी का सुरूद

मेरे मय-ख़ाने में मौज-ए-मय-ए-उम्मीद हराम

मैं वो नक़्क़ाश हूँ खोया हुआ भटका नक़्क़ाश

जिस के हर नक़्श में तख़्ईल के हर पैकर में

मुस्कुराती है बड़े नाज़ से रूह-ए-आलाम

ऐ मिरे दोस्त! मिरे ग़म के परखने वाले

बस चले मेरा तो ला दूँ तुझे रूह-ए-गुल-ए-तर

बख़्श दूँ अपनी तड़प, अपना जुनूँ अपनी नज़र

फिर तुझे अपने शब ओ रोज़ का आलम दिखलाऊँ

हर तबस्सुम में तुझे शाइबा-ए-ग़म दिखलाऊँ

ख़ून-ए-नाहक़ पे जो होता है वो मातम दिखलाऊँ

परतव-ए-ख़ुर से जो बे-जाँ है वो शबनम दिखलाऊँ

तुझ को दिखलाऊँ कि बे-रंग है किस दर्जा सहर

तीरा-ओ-तार सी ये रात, भयानक सी फ़ज़ा

डगमगाते हुए क़दमों को मिरे दोस्त बढ़ा

इक ज़रा और बुलंदी पे ख़ुदा-रा आ जा

देख इस वुसअत-ए-तारीक के सन्नाटे को

देवता मौत का खोले हुए जैसे शहपर

और इस वुसअत तारीक के सन्नाटे में

कोई छीने लिए जाता है सितारों की दमक

कोई बे-नूर किए देता है शोलों की लपक

कोई कलियों को मसलता है तो फिर क्या कीजे

ज़ख़्म-ए-गुल तुझ को महकना है तो हँस हँस के महक

कौन सय्याद की नज़रों से भला बचता है

ताइर-ए-गोशा-नशीं! ख़ूब चहक! ख़ूब चहक!

जागती ज़र्द सी आँखें न कहें लग जाएँ

दर्द-ए-इफ़्लास! ज़रा और चमक और चमक!

लाल-ओ-गौहर के ख़ज़ाने भी कहीं भरते हैं

अरक़-ए-मेहनत-ए-मजबूर! टपक और टपक!

है तिरे ज़ोफ़ पे कुछ मस्ती-ए-सहबा का गुमाँ

ऐ क़दम और बहक! और बहक और बहक!

वो चमकती हुई आई तिरे सर पर शमशीर

मिज़ा-तिफ़्लाक-ए-मासूम झपक! जल्द झपक!

सीना-ए-ख़ाक में बे-कार हुआ जाता है जज़्ब

रुख़-ए-बे-दाद पे ऐ ख़ून झलक! आह झलक!

क़तरा क़तरा यूँही टपकाता रहेगा कोई ज़हर

तू भी ऐ सब्र के साग़र यूँही थम थम के छलक!

मौत का रक़्स भी किया चीज़ है ऐ शम-ए-हयात!

हाँ ज़रा और भड़क और भड़क और भड़क!

हर तरफ़ कारगाह-ए-दहर में उठता है धुआँ

हर तरफ़ मौत के आसार, तबाही के निशाँ

सर्द अज्साम बताते नहीं मंज़िल का पता

राहें वीरान हैं, मिलते नहीं राही के निशाँ

ज़ुल्मत-ए-ग़म है कि बढ़ती ही चली जाती है

हाँ मगर किस ने जलाए हैं ये हिकमत के दिए

आँखें चीख़ें कि निकल आया वो उम्मीद का चाँद

चौंका दीवाना कि दामान-ए-दरीदा को सिए

दौड़ा मय-ख़्वार कि इक जाम-ए-मय-ए-तुंद पिए

ख़्वाहिश-ए-मर्ग मिरे सीने में होने लगी ज़ब्ह

डूबते दिल ने दुआ माँगी की कुछ और जिए

यक-ब-यक आँधियाँ उठने लगीं हर जानिब से

आन की आन मैं गहना गया उम्मीद का चाँद

आन की आन में गुल हो गए हिकमत के दिए

न तो दीवाने का दामान-ए-दरीदा ही सिला

न तो मय-ख़्वार को इक क़तरा-ए-सहबा ही मिला

बदलियाँ छटने न पाई थीं कि फिर छाने लगीं

बिजलियाँ सर पे इसी तौर से लहराने लगीं

जिस के सीने में हों ऐ दोस्त हज़ारों नासूर

जीते-जी उस ने भला चैन कभी पाया है

आह आई है मिरे लब पे तो क्यूँकर रोकूँ

क्या करूँ अश्क अगर पलकों पे ढल आया है

लेकिन ऐ दोस्त! मिरे दर्द के बे-हिस नक़्क़ाद

मिरे आँसू मिरी आहें भी तो कुछ कहती हैं

मिरी अफ़्सुर्दा निगाहें भी तो कुछ कहती हैं

और दाग़-ए-दिल-ए-नाकाम दिखाऊँ कैसे

दिल-ए-ख़ूँ-गश्ता का पैग़ाम सुनाऊँ कैसे

यूँ तो कहने को ये आँसू हैं बस इक क़तरा-ए-आब

जिन में सुर्ख़ी दिल-ए-पुर-ख़ूँ की न सोज़ ओ तब-ओ-ताब

पर कोई नर्म सा जब राग सुना देते हैं

यही आँसू हैं कि इक आग लगा देते हैं

चैन कब देती हैं अफ़्सुर्दा निगाहें मेरी

आँधियाँ सीनों में भर देती हैं आहें मेरी

सब्र ऐ दोस्त! अभी सर्द कहाँ ग़म की आग

लब तक आए भी तो जल जाएँगे सब ऐश के राग

सब्र ऐ दोस्त कि इक ऐसा भी दिन आएगा

ख़ास इक हद से गुज़र जाएगा पस्ती का शुऊर

सीना-ए-ख़ाक से फिर उट्ठेगा वो शोर-ए-नुशूर

गुम्बद-ए-तीरा-ए-अफ़्लाक भी थर्राएगा

वो असीरान-ए-बला का दर-ए-ज़िंदाँ पे हुजूम

काँपती टूटती ज़ंजीरों पे रक़्स-ए-बे-रब्त

रक़्स-ए-बे-रब्त में फिर रब्त सा आ जाएगा

ग़ैर के साग़र-ए-ज़रपाश का फिर जो भी हो हश्र

अपना ही जाम-ए-सिफ़ालीं कोई छलकाएगा

गासू-ए-शाहिद-ए-गीती में पिरो कर मोती

कोई दीवाना बहुत दाद-ए-जुनूँ पाएगा

सब्र ऐ दोस्त कि इक ऐसा भी दिन आएगा

अंजुमन बदलेगी सब साज़ बदल जाएँगे

गाने वालों के भी अंदाज़ बदल जाएँगे

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