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शमीम-ए-ज़ुल्फ़ ओ गुल-ए-तर नहीं तो कुछ भी नहीं - मुईन अहसन जज़्बी कविता - Darsaal

शमीम-ए-ज़ुल्फ़ ओ गुल-ए-तर नहीं तो कुछ भी नहीं

शमीम-ए-ज़ुल्फ़ ओ गुल-ए-तर नहीं तो कुछ भी नहीं

दिमाग़-ए-इश्क़ मोअत्तर नहीं तो कुछ भी नहीं

ग़म-ए-हयात बजा है मगर ग़म-ए-जानाँ

ग़म-ए-हयात से बढ़ कर नहीं तो कुछ भी नहीं

हक़ीक़त-ए-ग़म-ए-दौराँ के साथ ऐ नासेह

फ़रेब-ए-शीशा-ओ-साग़र नहीं तो कुछ भी नहीं

रह-ए-वफ़ा में दिल ओ जाँ निसार कर जाएँ

अगर ये अपना मुक़द्दर नहीं तो कुछ भी नहीं

अज़ाब-ए-दर्द पे नाज़ाँ हैं अहल-ए-दर्द मगर

नशात-ए-दर्द मयस्सर नहीं तो कुछ भी नहीं

ये कह के छोड़ दी राह-ए-ख़िरद मिरे दिल ने

क़दम क़दम पे जो ठोकर नहीं तो कुछ भी नहीं

वो हर्फ़ जिस से है मंसूर ओ दार को निस्बत

लब-ए-जुनूँ पे मुकर्रर नहीं तो कुछ भी नहीं

नसीम बन के हम आए हैं इस गुलिस्ताँ में

कली कली जो गुल-ए-तर नहीं तो कुछ भी नहीं

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