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कितनी बुलंदियों पे सर-ए-दार आए हैं - मुईन अहसन जज़्बी कविता - Darsaal

कितनी बुलंदियों पे सर-ए-दार आए हैं

कितनी बुलंदियों पे सर-ए-दार आए हैं

किस मअरका में अहल-ए-जुनूँ हार आए हैं

घबरा उठे हैं ज़ुल्मत-ए-शब से तो बार-हा

नाले हमारे लब पे शरर-बार आए हैं

ऐ क़िस्सा-गो अज़ल से जो बीती है वो सुना

कुछ लोग तेरे फ़न के परस्तार आए हैं

पाई गुलों से आबला-पाई की जब न दाद

दीवाने हैं कि सू-ए-लब-ए-ख़ार आए हैं

ग़म-ख़्वारियों की तह में दबी सी मसर्रतें

यूँ मेरे पास भी मिरे ग़म-ख़्वार आए हैं

पहुँचे हैं जब भी ख़ल्वत-ए-दिल में तो ऐ नदीम

अक्सर हम अपने-आप से बेज़ार आए हैं

उस बज़्म में तो मय का कहीं ज़िक्र तक न था

और हम वहाँ से बे-ख़ुद ओ सरशार आए हैं

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