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इस बुत के हर फ़रेब पे क़ुर्बान से रहे - मुईन अहसन जज़्बी कविता - Darsaal

इस बुत के हर फ़रेब पे क़ुर्बान से रहे

इस बुत के हर फ़रेब पे क़ुर्बान से रहे

इक उम्र अपने मिटने के सामान से रहे

उस जाँ-नवाज़ कूचे में हम भी रहे मगर

बे-दिल कभी रहे कभी बे-जान से रहे

रिंदान-ए-मय-कदा हैं कि तंग आ के उठ गए

यारान-ए-मय-कदा हैं कि अंजान से रहे

उस में चमन का रंग न इस में चमन का रूप

हम बू-ए-गुल से आज परेशान से रहे

लब सी लिए जो ख़ंदा-ए-याराँ के ख़ौफ़ से

बरसों हमारे सीने में तूफ़ान से रहे

ये जान ऐसी चीज़ है क्या फिर भी हम-नशीं

हम उन पे जान दे के पशेमान से रहे

गुलशन में जोश-ए-गुल तो बगूला हैं दश्त में

अहल-ए-जुनूँ जहाँ भी रहे आन से रहे

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