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हम एक ख़्वाब लिए माह ओ साल से गुज़रे - मुईन अहसन जज़्बी कविता - Darsaal

हम एक ख़्वाब लिए माह ओ साल से गुज़रे

हम एक ख़्वाब लिए माह ओ साल से गुज़रे

हज़ारों रंज हज़ारों मलाल से गुज़रे

हमें मिला जो कोई आसमाँ तो सूरत-ए-माह

न जाने कितने उरूज ओ ज़वाल से गुज़रे

कभी ग़रीबों की आहों में की बसर हम ने

कभी अमीरों के जाह-ओ-जलाल से गुज़रे

वो बे-सहारा से कुछ लोग जान से बेज़ार

ख़बर मिली है कि औज-ए-कमाल से गुज़रे

ये ज़िंदगी भी अजब राह थी कि हम जिस से

क़दम बढ़ाते झिजकते निढाल से गुज़रे

हक़ीक़तें तो निगाहों के सामने थीं मगर

हम एक उम्र फ़रेब-ए-ख़याल से गुज़रे

हिकायत-ए-गुल-ओ-बुलबुल पे ख़ंदा-ज़न हैं वही

जो शाम-ए-हिज्र न सुब्ह-ए-विसाल से गुज़रे

गले लगाती है मंज़िल उन्हें भी ऐ 'जज़्बी'

क़दम क़दम पे जो ख़ौफ़-ए-मआल से गुज़रे

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