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फ़ुज़ूल राज़ मोहब्बत का सब छुपाते हैं - मुईन अहसन जज़्बी कविता - Darsaal

फ़ुज़ूल राज़ मोहब्बत का सब छुपाते हैं

फ़ुज़ूल राज़ मोहब्बत का सब छुपाते हैं

बुझाए जो न बुझे आग वो बुझाते हैं

मैं जितना राह-ए-मोहब्बत से हटता जाता हूँ

वो उतने ही मिरे नज़दीक आए जाते हैं

सँभाल जज़्बा-ए-ख़ुद्दारी-ए-दिल-ए-महज़ूँ

किसी के सामने फिर अश्क आए जाते हैं

तुम्हारे हुस्न के जल्वों की शोख़ियाँ तौबा

नज़र तो आते नहीं दिल पे छाए जाते हैं

हज़ार हुस्न की फ़ितरत से हो कोई आगाह

निगाह-ए-लुत्फ़ के सब ही फ़रेब खाते हैं

शिकस्ता दिल ही के नग़्मे तो हैं वो ऐ 'जज़्बी'

जिन्हें वो सुनते हैं और झूम झूम जाते हैं

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