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दिल सर्द हो तो वा लब-ए-गुफ़्तार क्या करें - मुईन अहसन जज़्बी कविता - Darsaal

दिल सर्द हो तो वा लब-ए-गुफ़्तार क्या करें

दिल सर्द हो तो वा लब-ए-गुफ़्तार क्या करें

मंसूर क्या बनें हवस-ए-दार क्या करें

अब क्या सुनाएँ यूसुफ़ ओ ज़िंदाँ की दास्ताँ

फिर गर्म जिंस-ए-दर्द का बाज़ार क्या करें

वो साग़र-ए-नशात हो या जाम-ए-ज़हर-ए-ग़म

साक़ी ने जब दिया हो तो इंकार किया करें

देखे न अपने साथ जो कोई तो क्या दिखाएँ

समझे न कोई बात तो इसरार क्या करें

'जज़्बी' निगाह में है बरहना-सरी की शान

हम एहतिराम-ए-तुर्रा-ए-दस्तार क्या करें

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