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दिल में कुछ सोज़-ए-तमन्ना के निशाँ मिलते हैं - मुईन अहसन जज़्बी कविता - Darsaal

दिल में कुछ सोज़-ए-तमन्ना के निशाँ मिलते हैं

दिल में कुछ सोज़-ए-तमन्ना के निशाँ मिलते हैं

इस अंधेरे में उजाले के समाँ मिलते हैं

आज भी रंग-ए-बयाबाँ के तपिश-जारों में

लड़खड़ाते हुए क़दमों के निशाँ मिलते हैं

हाँ इसी मंज़िल-ए-सद-कैफ़-ओ-तरब की जानिब

क़ाफ़िले आज भी आशिक़ के रवाँ मिलते हैं

ऐ गिरे हम-सफ़रो इस को तो मंज़िल न कहो

आँधियाँ उठती हैं तूफ़ान यहाँ मिलते हैं

उन के हर वादा-ए-अल्ताफ़ की रंगीनी में

कितने ना-दीदा सितम-हा-ए-गिराँ मिलते हैं

उस की महफ़िल में वो बहके हुए सीमीं नगमें

अब तो कुछ दिन से ब-अंदाज़-ए-फ़ुग़ाँ मिलते हैं

यूँ गवारा है ये ख़ूँ-बार उफ़ुक़ का मंज़र

इस के परतव में हमें ताज़ा जहाँ मिलते हैं

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