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बीते हुए दिनों की हलावत कहाँ से लाएँ - मुईन अहसन जज़्बी कविता - Darsaal

बीते हुए दिनों की हलावत कहाँ से लाएँ

बीते हुए दिनों की हलावत कहाँ से लाएँ

इक मीठे मीठे दर्द की राहत कहाँ से लाएँ

ढूँडें कहाँ वो नाला-ए-शब-ताब का जमाल

आह-ए-सहर-गही की सबाहत कहाँ से लाएँ

समझाएँ कैसे दिल की नज़ाकत का माजरा

ख़ामोशी-ए-नज़र की ख़िताबत कहाँ से लाएँ

तर्क-ए-तअल्लुक़ात का हो जिस से एहतिमाल

बेबाकियों में इतनी सदाक़त कहाँ से लाएँ

अफ़्सुर्दगी-ए-ज़ब्त-ए-अलम आज भी सही

लेकिन नशात-ए-ज़ब्त-ए-मसर्रत कहाँ से लाएँ

हर फ़त्ह के ग़ुरूर में बे-वजह बे-सबब

एहसाह-ए-इन्फ़िआल-ए-हज़ीमत कहाँ से लाएँ

आसूदगी-ए-लुत्फ़-ओ-इनायत के साथ साथ

दिल में दबी दबी सी क़यामत कहाँ से लाएँ

वो जोश-ए-इज़्तिराब पे कुछ सोचने के बाद

हैरत कहाँ से लाएँ नदामत कहाँ से लाएँ

हर लहज़ा ताज़ा ताज़ा बलाओं का सामना

ना-आज़मूदा-कार की जुरअत कहाँ से लाएँ

है आज भी निगाह-ए-मोहब्बत की आरज़ू

पर ऐसी इक निगाह की क़ीमत कहाँ से लाएँ

सब कुछ नसीब हो भी तो ऐ शोरिश-ए-हयात

तुझ से नज़र चुराने की आदत कहाँ से लाएँ

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