ऐ ग़ैरत-ए-ग़म आँख मिरी नम तो नहीं है
ऐ ग़ैरत-ए-ग़म आँख मिरी नम तो नहीं है
कोई दिल-ए-ख़ूँ-गश्ता का महरम तो नहीं है
रिसते हुए ज़ख़्मों का हो कुछ और मुदावा
ये हर्फ़-ए-तसल्ली कोई मरहम तो नहीं है
ख़ामोश हैं क्यूँ नाला-कशान-ए-शब-ए-हिज्राँ
ये तीरा-शबी आज भी कुछ कम तो नहीं है
जलता तो है दिल आज भी ऐ तीरगी-ए-ग़म
इक शम्अ की लौ आज भी मद्धम तो नहीं है
उस बज़्म में सब कुछ है मगर ऐ दिल-ए-पुर-शौक़
तेरी सी तलब तेरा सा आलम तो नहीं है
कुछ वो भी हैं चुप-चाप से कुछ मैं भी हूँ ख़ामोश
दर-पर्दा कोई रंजिश-ए-बाहम तो नहीं है
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