ये हिजरतों के तमाशे, ये क़र्ज़ रिश्तों के
मैं ख़ुद को जोड़ते रहने में टूट जाता हूँ
Mir Taqi Mir
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ज़िंदगी हम तिरे कूचे में चले आए तो हैं
इश्क़ में लज़्ज़त-ए-आज़ार निकल आती है
वो चाहते हैं कि हर बात मान ली जाए
मकाँ से दूर कहीं ला-मकाँ में बैठ गई
आज कुछ सूरत-ए-अफ़्लाक जुदा लगती है
आसार-ए-जुनूँ बे-सर-ओ-सामाँ नहीं होते
एक हंगामा शब-ओ-रोज़ बपा रहता है
अपने अंदर के अंधेरे को जलाया मैं ने
आँखों में शब उतर गई ख़्वाबों का सिलसिला रहा
कोई आता है या नहीं आता
मैं कोई दश्त मैं दीवार नहीं कर सकता