मकाँ से दूर कहीं ला-मकाँ में बैठ गई
मकाँ से दूर कहीं ला-मकाँ में बैठ गई
बदन की आग तिलिस्मात-ए-जाँ में बैठ गई
सुलगती धूप में जल कर फ़क़ीर-ए-शब तिरी ख़ाक
क्यूँ ख़ान-क़ाह-ए-शब-ए-बे-कराँ मैं बैठ गई
क्यूँ आज दिल के हरम में नमाज़-ए-ग़म न हुई
क्यूँ एक चुप सी सदा-ए-अज़ाँ में बैठ गई
हमारी सुब्ह हुजूम-ए-बला की नज़्र हुई
हमारी शाम भी दश्त-ए-गुमाँ मैं बैठ गई
किसी का जिस्म शिकार-ए-नहंग-ए-वक़्त-ए-ख़िज़ाँ
किसी की साँस फ़ज़ा-ए-गिराँ में बैठ गई
कहीं सफ़र की रिसालत कहीं थकन की हदीस
ये कशमकश भी 'रशीदी' धुआँ में बैठ गई
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