इश्क़ में लज़्ज़त-ए-आज़ार निकल आती है
इश्क़ में लज़्ज़त-ए-आज़ार निकल आती है
इस बहाने से शब-ए-तार निकल आती है
हम तिरे शहर से मिलते हैं गुज़र जाते हैं
तुझ से मिलने में तो तलवार निकल आती है
ख़्वाब में तोड़ता रहता हूँ अना की ज़ंजीर
आँख खुलती है तो दीवार निकल आती है
जब भी आता है कोई रंग ज़माने जैसा
कुछ न कुछ सूरत-ए-इंकार निकल आती है
जब भी करता हूँ ख़मोशी के हवाले ख़ुद को
जाने क्या बरसर-ए-पैकार निकल आती है
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