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आँखों में शब उतर गई ख़्वाबों का सिलसिला रहा - मुईद रशीदी कविता - Darsaal

आँखों में शब उतर गई ख़्वाबों का सिलसिला रहा

आँखों में शब उतर गई ख़्वाबों का सिलसिला रहा

मैं ख़ुद को देखता रहा मैं ख़ुद को सोचता रहा

ख़ुद को पुकारता रहा, कोई ख़बर नहीं मिली

किस की ख़बर नहीं मिली, किस को पुकारता रहा

उस की तलाश ही न थी, अपनी तलाश भी न थी

खोने का ख़ौफ़ कुछ न था, फिर कैसा फ़ासला रहा

कुछ मसअले तो घर गए, कुछ मसअले बिखर गए

सब मसअले गुज़र गए और एक मसअला रहा

वो भी बिखर बिखर गया मैं भी इधर उधर गया

वो भी धुआँ धुआँ सा कुछ मैं भी ग़ुबार सा रहा

लफ़्ज़ों की शाख़ें फैल कर मेरे लहू से आ मिलीं

कुछ क़हक़हे उछल गए और कोई चीख़ता रहा

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