आज कुछ सूरत-ए-अफ़्लाक जुदा लगती है
आज कुछ सूरत-ए-अफ़्लाक जुदा लगती है
देखता हूँ तिरी जानिब तो घटा लगती है
ज़िंदगी हम तिरे कूचे में चले आए तो हैं
तेरे कूचे की हवा हम से ख़फ़ा लगती है
शब की आहट से यहाँ चौंक गया है कोई
ये भी शायद मिरे दिल ही की ख़ता लगती है
मैं ज़मीनों की लकीरों में उलझता कैसे
आसमानों से मिरी गर्दिश-ए-पा लगती है
क्या मिलेगा तुझे मेले में भटकने वाले
इन दुकानों में फ़क़त एक सदा लगती है
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