दूर रहना था जब उस को 'मोहसिन'
मेरे नज़दीक वो आया क्यूँ था
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यूँ समझ लो कि ब-जुज़ नाम-ए-ख़ुदा कुछ न रहा
हर शख़्स यहाँ गुम्बद-ए-बे-दर की तरह है
ज़माने भर की ज़िल्लत सामने थी
किसी के दोश न मरकब से इस्तिफ़ादा किया
दूर तक सब्ज़ा कहीं है और न कोई साएबाँ
बिछड़ने वालों में हम जिस से आश्ना कम थे
कोई कश्ती में तन्हा जा रहा है
ये हैं जो आस्तीन में ख़ंजर कहाँ से आए
ये ज़ुल्म देखिए कि घरों में लगी है आग
क्या देखते हो राह में रुक कर यहाँ वहाँ
ठहरे हुए न बहते हुए पानियों में हूँ
कोई अकेला तो मैं सादगी-पसंद न था