ज़माने भर की ज़िल्लत सामने थी
हुनर-मंदी की क़ीमत सामने थी
शिकस्त-ए-ख़्वाब का आलम न पूछो
बड़ी कड़वी हक़ीक़त सामने थी
निहाँ सारा ही चेहरों से अयाँ था
दिलों की सब कुदूरत सामने थी
Faiz Ahmad Faiz
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इस तरफ़ से उस तरफ़ तक ख़ुश्क ओ तर पानी में है
हर शख़्स यहाँ गुम्बद-ए-बे-दर की तरह है
सुनते हैं कि आबाद यहाँ था कोई कुम्बा
जितना तहज़ीब-ए-बदन से मैं सँवरता जाऊँ
वो मौत का मंज़र जो था दिन रात वही है
ये हैं जो आस्तीन में ख़ंजर कहाँ से आए
ठहरे हुए न बहते हुए पानियों में हूँ
हर रोज़ नया हश्र सर-ए-राहगुज़र था
दोश-ए-हवा पे तिनकों का ये आशियाना क्या
दूर तक सब्ज़ा कहीं है और न कोई साएबाँ
कोई दीवार न दर जानते हैं
जैसे दो मुल्कों को इक सरहद अलग करती हुई