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यूँ समझ लो कि ब-जुज़ नाम-ए-ख़ुदा कुछ न रहा - मोहसिन ज़ैदी कविता - Darsaal

यूँ समझ लो कि ब-जुज़ नाम-ए-ख़ुदा कुछ न रहा

यूँ समझ लो कि ब-जुज़ नाम-ए-ख़ुदा कुछ न रहा

जल के इस आग में सब ख़ाक हुआ कुछ न रहा

किस का सर किस की रिदा किस का मकाँ ढूँडते हो

क़त्ल ओ ग़ारत में तो कोई न बचा कुछ न रहा

हम किसी और के होने की ख़बर क्या देते

गुम हुए ऐसे कि अपना भी पता कुछ न रहा

कच्चे रंगों की तरह उड़ गए सारे ही हुरूफ़

कोरे काग़ज़ पे था जो कुछ भी लिखा कुछ न रहा

'मोहसिन' इस तरह लुटी महफ़िल-ए-साज़-ओ-आवाज़

गुल-ए-नग़्मा न कोई बर्ग-ए-नवा कुछ न रहा

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