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ये जौर अहल-ए-अज़ा पर मज़ीद करते रहे - मोहसिन ज़ैदी कविता - Darsaal

ये जौर अहल-ए-अज़ा पर मज़ीद करते रहे

ये जौर अहल-ए-अज़ा पर मज़ीद करते रहे

सितम-शिआर मोहर्रम में ईद करते रहे

हमारे दम से रहा दौर-ए-बादा-पैमाई

कि अपने ख़ून से हम मय कशीद करते रहे

गिला तो ये है कि जितने अमीर-ए-शहर हुए

ग़रीब-ए-शहर को सब ना-उम्मीद करते रहे

किया है हम ने हमेशा ही कारोबार-ए-ज़ियाँ

कि सस्ता बेच के महँगा ख़रीद करते रहे

किसी से शहर-ए-ख़मोशाँ में कहते सुनते क्या

हम अपने आप से गुफ़्त-ओ-शुनीद करते रहे

वो ज़ेर-ए-ख़ंजर-ए-क़ातिल न था गुलू कोई

वो इक ख़याल था जिस को शहीद करते रहे

मिरा कलाम तो क्या नाक़दीन-ए-फ़न 'मोहसिन'

कलाम-ए-हक़ में भी क़ता-ओ-बुरीद करते रहे

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