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वो मौत का मंज़र जो था दिन रात वही है - मोहसिन ज़ैदी कविता - Darsaal

वो मौत का मंज़र जो था दिन रात वही है

वो मौत का मंज़र जो था दिन रात वही है

मुँह से न कहो सूरत-ए-हालात वही है

लफ़्ज़ों के उलट फेर से बदलेगा न मतलब

इमदाद जिसे कहते हो ख़ैरात वही है

गुल करना चराग़ों का तो इक खेल है उस का

वाज़ेह है पस-ए-पर्दा-ए-ज़ुल्मात वही है

ज़ंजीर में मौसम की हैं जकड़े हुए दिन रात

सर्दी वही गर्मी वही बरसात वही है

हम ने तो इसी तरह गुज़ारे हैं शब-ओ-रोज़

अपने लिए हर दिन वही हर रात वही है

कुछ मेरे ही मानिंद है तर्ज़-ए-सुख़न उस का

अंदाज़-ए-इशारात-ओ-किनायात वही है

दोनों ही तरफ़ आग बराबर की है 'मोहसिन'

दोनों ही तरफ़ गर्मी-ए-जज़्बात वही है

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