रस्ते में कोई आ के इनाँ-गीर हो न जाए
रस्ते में कोई आ के इनाँ-गीर हो न जाए
ये जज़्बा-ए-जुनूँ मिरा ज़ंजीर हो न जाए
उस को जो अब किसी से शिकायत नहीं रही
फिर क्यूँ वो सब से मिल के बग़ल-गीर हो न जाए
मैं ने ज़बान दी है तो लब वा करूँगा क्या
लेकिन ज़बान-ए-ख़ल्क़ से तशहीर हो न जाए
मंज़र ये हश्र-ख़ेज़ जो पेश-ए-निगाह है
डरता हूँ मेरे ख़्वाब की ताबीर हो न जाए
आँखों में बस गई है वो तस्वीर इस तरह
मेरी निगाह-ए-शौक़ भी तस्वीर हो न जाए
'मोहसिन' न जाने सुब्ह नुमूदार होगी कब
ये शाम-ए-बे-चराग़ ही तक़दीर हो न जाए
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