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मंज़िल-ओ-सम्त-ए-सफ़र से बे-ख़बर ना-आश्ना - मोहसिन ज़ैदी कविता - Darsaal

मंज़िल-ओ-सम्त-ए-सफ़र से बे-ख़बर ना-आश्ना

मंज़िल-ओ-सम्त-ए-सफ़र से बे-ख़बर ना-आश्ना

हम-सफ़र मुझ को मिला कैसा सफ़र ना-आश्ना

सारे ही चेहरे सभी दीवार-ओ-दर ना-आश्ना

लग रहा है मुझ को सारा ही नगर ना-आश्ना

शम्अ इक ना-महरम-ए-असरार-ए-शब हंगाम-ए-शाम

इक सितारा आख़िर-ए-शब और सहर ना-आश्ना

मौज-ए-तेज़-ओ-तुंद से अठखेलियाँ करती हुई

अपने बर्ग-ओ-बार से शाख़-ए-शजर ना-आश्ना

ये तो दुनिया है बदलती रहती है उस की नज़र

जिस क़दर ये आश्ना है उस क़दर ना-आश्ना

उस निगाह-ए-नाज़ को अपनी तरफ़ समझा किए

मुन्कशिफ़ फिर ये हुआ हम थे नज़र ना-आश्ना

क्या झुकेगा अब किसी के दर पे 'मोहसिन' अपना सर

ज़िंदगी भर तो रहा सज्दे से सर ना-आश्ना

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