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क्या देखते हो राह में रुक कर यहाँ वहाँ - मोहसिन ज़ैदी कविता - Darsaal

क्या देखते हो राह में रुक कर यहाँ वहाँ

क्या देखते हो राह में रुक कर यहाँ वहाँ

है क़त्ल-ओ-ख़ूँ का एक सा मंज़र यहाँ वहाँ

ज़ेर-ए-नगीं उसी के सभी क़र्या-ओ-दयार

उस के ही सब हैं ख़ेमा-ओ-लश्कर यहाँ वहाँ

है दरमियान-ए-ख़ंजर-ओ-सर फ़ासले का फ़र्क़

वर्ना सरों पे है वही ख़ंजर यहाँ वहाँ

शीशे के सब मकाँ हैं शिकस्ता इधर उधर

बिखरे पड़े हैं शहर में पत्थर यहाँ वहाँ

महफ़ूज़ रह गया न कोई रास्ता न मोड़

जाया करो न घर से निकल कर यहाँ वहाँ

लगता है अब उलटने को है ये बिसात-ए-शब

सरगोशियाँ यही हैं बराबर यहाँ वहाँ

'मोहसिन' अजीब हब्स का आलम है और मैं

कोई दरीचा है न कोई दर यहाँ वहाँ

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