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कोई कश्ती में तन्हा जा रहा है - मोहसिन ज़ैदी कविता - Darsaal

कोई कश्ती में तन्हा जा रहा है

कोई कश्ती में तन्हा जा रहा है

किसी के साथ दरिया जा रहा है

ये बस्ती भी न क्या रास आई उस को

उठा कर क्यूँ वो ख़ेमा जा रहा है

कहीं इक बूँद भी बरसा न पानी

कहीं बादल बरसता जा रहा है

दिए एक एक कर के बुझ रहे हैं

अंधेरा है कि बढ़ता जा रहा है

पहाड़ ऊपर तो नीचे खाइयाँ हैं

जहाँ से हो के रस्ता जा रहा है

वो वापस ले रहा है क़र्ज़ अपना

हमारे पास से क्या जा रहा है

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